नवाँ दृश्य
( पात्र- लक्ष्मण, राम, भरत, सीता, वशिष्ठ और कैकेयी )
भूतपूर्व स्वतंत्रता सेनानी, पंडित शिव नारायण शर्मा (1890-1976) द्वारा रचित कविताओं का संकलन।
नवाँ दृश्य
( पात्र- लक्ष्मण, राम, भरत, सीता, वशिष्ठ और कैकेयी )
लक्ष्मण- नाथ खग मृग भगे जाते, मनो पीछे व्याघ है।
नरों के भी झुण्ड आते, कुछ नई सी बात है।।
अश्व रथ हाथी सभी तो, देखने में आ रहे ।
जान पड़ता भरत आये, साथ दल बल ला रहे।।
छोड़कर आये अयोध्या, चित्रकूट लगा भला।
पर किया पीछा यहाँ भी, उन्हे यह भी है खला।।
यदि यही है बात, मैं भी धनुष बाण सम्हाल लूँ।
धृष्टता निर्लज्जता का, पूर्ण बदला ले रहूँ।।
राम- बन्धु क्यों यह सोचते हो, युद्ध करने आ रहे।
क्या न सम्भव मातु से ही विमुख होकर आ रहे।।
लक्ष्मण- किन्तु प्रभू ने जब पिता के वचन का पालन किया।
क्यों न फिर माँ ने कहा हो, भरत ने भी वह किया।।
राम- तर्क है यह सच तुम्हारा, बन्धु मैं मानूँ इसे।
किन्तु मैं जो कह रहा हूँ, सत्य तुम जानो उसे।।
भरत संग शत्रुध्न देखो, नयन जल बरसा रहे।
गुरू सचिव माता सभी तो, साथ पुरजन आ रहे।।
भरत- नाथ पग वंदन करूँ मैं, यह अभागा क्यों हुआ।
बिन बताये मुझे कुछ भी, कांड सारा क्यों हुआ।।
राम- आ गये गुरू सचिव माँ सब, और पुरजन संग में।
बढ़ूँ आगे चरण छूकर, बन्दना सब संग में।।
सीता- हाथ जोड़ूँ, पैर लागूँ, सास अभिनन्दन करूँ।
फूल फल बन कंद ये ही, भेंट कर सम्मुख करूँ।।
राम- आँख आँसू देख माँ के, हो रहा दु:ख है मुझे।
तात तो है स्वस्थ पहले, यह बताओ तो मुझे।।
वशिष्ठ- वत्स! नृप सुरपुर सिधारे, जभी तुम बन चल दिये।
राम- हा पिता! हा तात! अपने, प्राण मेरे हित दिये।।
वशिष्ठ- शोक करना व्यर्थ नृप का, साथ में यश ले गये।
प्राण से प्यारी प्रजा को, चार सुत हैं दे गये।।
राम- भरत भाई अब बताओ, क्या तुम्हारी चाहना।
क्या तुम्हारी भावना है, क्या तुम्हारी धारणा।।
भरत- नाथ अब कहना, रहा क्या, चाहता वह मिल गया।
जननि ने कंटक मिटाया, राज का यश मिल गया।।
आपने बनवास पाया, बैठने को यह शिला।
मुझे रहने को महल में, सब तरह का सुख मिला।।
तात ने तन तड़प त्यागा, और भोगी यातना।
जी रहा हूँ मैं अभागा, यही मेरी चाहना।।
राम- भरत ऐसा मत विचारो, हृदय से मेरे लगो।
बहुत कुछ तुमने कहा है, और मत आगे कहा।।
कैकेयी- बन्धु जो नहिं जानता है, तुम बताओ यह उन्हें।
जननि ने जन कर न जाना, यदपि यह सच है तुम्हें।।
यदि यही है राम प्यारे, लौट कर घर को चलो।
भूल जाओ कुकृत मेरी, नृपति छोड़ा राज लो।।
पाप मैंने जो किया है अवसि उसका फल मिले।
किन्तु नृप की, प्रजा जन की, चाहना को बल मिले।।
राम- माँ न ऐसी बात बोलो, सोच मत मन में करो।
दैव की गति दैव जाने, कौन क्या कहता कहो।।
पितु बचन को मैं न मानूँ, पाप का भागी बनूँ।
लोक में अपयश कमाऊँ, कुल कलंकित मैं करूँ।।
भरत- लौट कर प्रभू घर चलें, यह विनय कर फिर मैं कहूँ।
वर्ष चौदह की अवधि तक, मैं यहाँ बन में रहूँ।।
राम- भरत तुम सब जानते हो, उचित हो जो वह कहो।
गुरु सचिव सब ही यहाँ हैं, ये कहें वैसा करो।।
भरत- नाथ यदि निश्चय यही है, दीजिए निज पादुका।
करूँ मैं सेवा इन्हीं की, समझ प्रतिनिधि आपका।।
वशिष्ठ- यह किया प्रस्ताव अच्छा, सभी को स्वीकार है।
राम को भी क्यों न होवे, भला अंगीकार है।।
राज हित जब बन्धु ही है, बन्धु को मरवा रहे।
राम उतते भरत इतते, लात से ठुकरा रहे।।
लोक सब इनको सराहें, राम का यह राज है।
सुन लजाये क्यों न इसको, विश्व का गणराज है।।