तीसरा दृश्य
(पात्र- राम, लक्ष्मण, दशरथ और कैकेयी)
भूतपूर्व स्वतंत्रता सेनानी, पंडित शिव नारायण शर्मा (1890-1976) द्वारा रचित कविताओं का संकलन।
तीसरा दृश्य
(पात्र- राम, लक्ष्मण, दशरथ और कैकेयी)
राम- तात हाय! अचेत यों क्यों, शोक शय्या पर पड़े।
क्या हुआ है कष्ट इनको, हो रहे व्याकुल बड़े।।
रोग यदि कोई हुआ हो, वैद्य बुलवाऊँ अभी।
उचित हो उपचार जो भी, शीघ्र करवाऊँ अभी।।
दशरथ- राम प्यारे, राम प्यारे, लाल मेरे हो कहाँ।
प्राण प्यारे, प्राण प्यारे, मुख दिखाओ आ यहाँ।।
राम- आपको क्या हो गया है, मैं खड़ा हूँ पास में।
दो मुझे आदेश जो हो, वह करूँगा तात मैं।।
मौन क्यों हो आँख खोलो, बात बोलो तो सही।
होश में आओ बताओ, वेदना क्यों हो रही।।
कहो माँ, तुम ही बताओ, तात को क्यों बेकली।
मैं करूँ तत्काल वह ही, जो लगे इनको भली।।
कैकेयी- दोष मैं किसका बताऊँ, स्वयं को दोषी कहूँ।
और सब हैं भाग्यशाली, मैं अभागी ही रहूँ।।
हे अभागिन! सोच अब भी, क्या तुझे यह भायगा।
देख तो चौदह बरस को, यही बन को जायगा।
आज जो तू कर रही है, अंत में पछतायेगी।
द्वेष की यह भावना ही, काल बन के खायेगी।।
भरत के संग राम रहता, यह नही भाया तुझे।
राम को कर अलग मुझसे, मारना भाया मुझे।।
लक्ष्मण- माँ कभी ऐसा हुआ क्या, राघवों के देश में।
उचित ही तो मान होगा, तात के आदेश में।।
ज्येष्ठ सुत पाता रहा है, राज्य वह ही पायगा।
पाप यह माता तुम्हारा, श्राप बन कर खायगा।।
दशरथ- सच कहा सुत, मैं इसी को, देखने को जी रहा।
फिर कहो बेटा उसी को, जो अभी तुमने कहा।।
राज कुल का जो प्रथा है, वही बेटा मान्य है।
तोड़ना अनुचित उसे है, और यह अन्याय है।
राम- तात! पितु आदेश सुत को, सर्वथा ही मान्य है।
राज्य क्या साम्राज्य भी हो, सर्वथा ही त्याज्य है।।
भरत में मुझसे कहो फिर, तात! क्या कुछ भेद है?
अवध से बन में मुझे सुख, वयर्थ का यह खेद है।।
लक्ष्मण- तिलक का निश्चय हुआ जब, बस वही अभिषेक है।
फिर उसी को बदलना अब, क्या नहीं अविवेक है?
राज सिंहासन सुशोभित, नाथ! चल के कीजिए।
यदि नहीं तो दास को फिर, साथ अपने लीजिए।।